मूल बंध

प्राणायाम करते समय गुदा के छिद्रों को सिकोड़कर ऊपर की ओर खींचे रखना मूल-बंध कहलाता है। गुदा को संकुचित करने से ‘अपान’ स्थिर रहता है। वीर्य का अधः प्रभाव रुककर स्थिरता आती है। प्राण की अधोगति रुककर ऊर्ध्वगति होती है। मूलाधार स्थित कुण्डलिनी में मूल-बंध से चैतन्यता उत्पन्न होती है। आँतें बलवान होती हैं, मलावरोध नहीं होता रक्त-संचार की गति ठीक रहती है। अपान और कूर्म दोनों पर ही मूल-बंध का प्रभाव रहता है। वे जिन तन्तुओं में बिखरे हुए फैले रहते हैं, उनका संकुचन होने से यह बिखरापन एक केन्द्र में एकत्रित होने लगता है। मूल बंध की क्रिया को ध्यानपूर्वक समझने का प्रयास किया जाय तो वह सहज ही समझ में भी आ जाती है और अभ्यास में भी। मूल बंध के दो आधार हैं। एक मल-मूत्र के छिद्र भागों के मध्य स्थान पर एक एडी़ का हलका सा दबाव देना। दूसरा गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्रेन्द्रिय का नाड़ियों के ऊपर खींचना।

इसके लिए कई आसन काम में लाये जा सकते हैं। पालती मारकर एक-एक पैर के ऊपर दूसरा रखना। इसके ऊपर स्वयं बैठकर जननेन्द्रिय मूल पर हलका दबाव पड़ने देना।

दूसरा आसन यह है कि एक पैर को आगे की ओर लम्बा कर दिया जाय और दूसरे पैर को मोड़कर उसकी ऐडी का दबाव मल-मूत्र मार्ग के मध्यवर्ती भाग पर पड़ने दिया जाय। स्मरण रखने की बात यह है कि दबाव हल्का हो। भारी दबाव डालने पर उस स्थान की नसों को क्षति पहुँच सकती है।

संकल्प शक्ति के सहारे गुदा को ऊपर की ओर धीरे-धीरे खींचा जाय और फिर धीरे-धीरे ही उसे छोड़ा जाय। गुदा संकोचन के साथ-साथ मूत्र नाड़ियाँ भी स्वभावतः सिकुड़ती और ऊपर खिंचती हैं। उसके साथ ही साँस को भी ऊपर खींचना पड़ता है। यह क्रिया आरम्भ में १० बार करनी चाहिये। इसके उपरान्त प्रति सप्ताह एक के क्रम को बढ़ाते हुए २५ तक पहुँचाया जा सकता है। यह क्रिया लगभग अश्विनी मुद्रा या बज्रोली क्रिया के नाम से भी जानी जाती है। इसे करते समय मन में भावना यह रहनी चाहिये कि कामोत्तेजन का केन्द्र मेरुदण्ड मार्ग से खिसक कर मेरुदण्ड मार्ग से ऊपर की ओर रेंग रहा है और मस्तिष्क मध्य भाग में अवस्थित सहस्रार चक्र तक पहुँच रहा है। यह क्रिया कामुकता पर नियन्त्रण करने और कुण्डलिनी उत्थान का प्रयोजन पूरा करने में सहायक होती है। इसे मूल (जड़) इसलिए कहा जाता है कि वह मानवी काया के मूल बांध देता है।

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