
जालंधर बंध
मस्तक को झुकाकर ठोड़ी को कण्ठ-कूप ( कण्ठ में पसलियों के जोड़ पर गड्डा है, उसे कण्ठ-कूप कहते हैं ) में लगाने को जालंधर-बंध कहते हैं। जालंधर बंध से श्वास-प्रश्वास क्रिया परअधिकार होता है। ज्ञान-तन्तु बलवान होते हैं। हठयोग में बताया गया है कि इस बन्ध का सोलह स्थान की नाड़ियों पर प्रभाव पड़ता है। १-पादांगुष्ठ, २-गुल्फ, ३-घुटने, ४-जंघा, ५-सीवनी, ६ -लिंग, ७-नाभि, ८-हदय, ९-ग्रीवा १०-कण्ठ ११-लम्बिका, १२-नासिका, १३-भ्रू, १४-कपाल, १५-मूर्धा और १६-ब्रह्मरंध्र। यह सोलह स्थान जालंधर बंध के प्रभाव क्षेत्र हैं, विशुद्धि चक्र के जागरण में जालंधर बन्ध से बड़ी सहायता मिलती है।
जालंधर बंध में पालती मारकर सीधा बैठा जाता है। रीढ़ सीधी रखनी पड़ती है। ठोड़ी को झुकाकर छाती से लगाने का प्रयत्न करना पड़ता है। ठोड़ी जितनी सीमा तक छाती से लगा सकें उतने पर ही सन्तोष करना चाहिये। जबरदस्ती नहीं करनी चाहिये। अन्यथा गरदन को झटका लगने और दर्द होने लगने जैसा जोखिम रहेगा।
इस क्रिया में भी ठोड़ी को नीचे लाने और फिर ऊँची उठाकर सीधा कर देने का क्रम चलाया जाय। साँस को भरने और निकालने का क्रम भी जारी रखना चाहिये। इससे अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा चक्र तीनों पर भी प्रभाव और दबाव पड़ता है। इससे मस्तिष्क शोधन का ‘कपाल भाति’ जैसा लाभ होता है। बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता दोनों ही जगते हैं। यही भावना मन में करनी चाहिये कि अहंकार छट रहा है और नम्रता भरी सज्जनता का विकास हो रहा है।
जालंधर बंध अर्थात् मस्तक को झुकाकर ठोड़ी को कण्ठ से लगाना व ध्यान को स्थिर करना। चित्त वृत्ति को शान्त कर मस्तिष्क को तनाव रहित व ध्यान योग्य बनाने में, विशुद्धि चक्र के जागरण में जालंधर बंध सहायक होता है। इसे मुख्य रूप से प्राणायाम में कुम्भक के साथ प्रयोग करते हैं। जब तीनों बंध एक साथ प्रयुक्त करते हैं तो इसे ‘महाबंध’ की स्थिति कहते हैं। यह सभी प्राणमय कोश को परिशोधित एवं चक्रों को जागृत करने में सहायक होता है, मानसिक सक्रियता बढ़ाती है, अतीन्द्रिय क्षमताएँ जागृत करती है।