
Amroli Mudra
अमरोली मुद्रा वर्णन
पित्तोल्वणत्वात्प्रथमाम्बुधारां विहाय निस्सारतयान्त्यधाराम् ।
निषेव्यते शीतलमध्यधारा कापालिके खण्डमतेऽमरोली ।। 96 ।।
अमरीं य: पिबेन्नित्यं नस्यं कुर्वन् दिने दिने ।
वज्रोलीमभ्यसेत् सम्यगमरोलीति कथ्यते ।। 97 ।।
भावार्थ :- मूत्र विसर्जन ( मूत्र त्याग ) के समय मूत्र की पहली धार जिसमें पित्त की मात्रा अधिक होती है व आखिरी धार जो सार रहित होती है इन दोनों को छोड़कर मध्य अर्थात् बीच की धार को पीने का उपदेश सभी खण्ड कापालिकों द्वारा किया गया है । इस क्रिया को अमरोली कहा गया है । नित्य प्रति जो साधक अपनी नासिका के द्वारा अपने ही मूत्र को पीता है और साथ ही वज्रोली मुद्रा का भी अभ्यास करता है । इन दोनों के मिले हुए रूप को ही अमरोली क्रिया कहा जाता है ।